शुक्रवार, 3 सितंबर 2021

प्यार को प्यार ही रहने दीजिये

सुबह की सैर के दौरान पार्क में निगाह उठी तो पाया बैंच के इर्द-गिर्द खड़े तीन पुरुष मेरी ही ओर देख रहे हैं। जाहिर है वे तीनों इस बात से अवगत थे कि तीनों सामने से गुजरती स्त्री को देख रहे हैं। पार्क इतना बड़ा नहीं कि मैं अपना रास्ता बदलती। मुझे और तीन-चार बार इसी राह से गुजरना था। अब हर बार देखे जाने की आशंका थी। मैंने खुद को वस्तु में रिड्यूस होते महसूस किया।‌‌ पहली बार मेरी नज़र अनायास उठी थी। यदि दोबारा नजर उठा कर देखूँ तो गलत समझ लिए जाने की आशंका थी, जबकि वे संभव है कि गलत समझ लिए जाने को प्रस्तुत हों। 

यह वह मामूली हिंसा है जिसे स्त्री किशोरावस्था से लेकर आजीवन झेलती है। वस्तु की तरह देखे जाने की हिंसा और धीरे-धीरे खुद वस्तु में रिड्यूस होते जाने की हिंसा। हम वह समाज हैं जिसमें मर्द पकड़े जाने पर निगाह फेर लेता है और स्त्री अपनी तरफ उठती निगाह को देख नजर झुका लेती है। किशोरावस्था में कभी बुरा लगने पर किसी से जवाब-तलब करना चाहा तो लड़के मुकर गए थे। वे समूह में थे, मैं अकेली। मुझे हमेशा ही बाहर निकलने की इजाज़त लेनी थी, जबकि बाहर की सारी जगहों पर लड़कों का सहज अधिकार था। मैंने अपने बाहर निकलने की आजादी को‌ बचाए रखने के लिए चुप रहना चुना। 

 

इस समय मुझे अपने बेटों के साथ किशोरावस्था के दौरान किए जाने वाले संवाद एक बार फिर याद आ रहे हैं। इतिहास जैसे बार-बार खुद को दोहराता है। किशोरावस्था वह समय होता है जब एक पुरुष समाज में स्त्रियों के साथ बराबरी से पेश आना सीखता है। ताज़ा घटना कुछ ही दिन पहले की है जब छोटे बेटे ने खाने की मेज पर बताया कि वह इन दिनों पीछे की गली में खेलने जाता है, क्योंकि उसके दोस्तों में से एक को उस गली में रहने वाली एक लड़की अच्छी लगती है। साथ ही उसने यह भी बताया कि उस गली में लड़कियां उनके साथ अच्छी तरह पेश नहीं आतीं। जब वह यह बता रहा था उस समय मेरा बड़ा बेटा भी साथ था। उसने भी लगभग सात-आठ बरस पहले इसी तरह के अनुभव साझा किए थे, जब मोहल्ले में नए-नए बने दोस्त एक खास गली में उनकी कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की की झलक देखने के लिए उसके घर के सामने साइकल चलाने या टहलने के लिये जाना पसंद करते थे।  

 

उस दिन खाने की मेज पर तीनों में कुछ देर तक इस बारे में बातचीत होती रही। यह बातचीत इन सवालों के इर्द-गिर्द थी कि "क्या तुम्हारा दोस्त जिस लड़की को पसंद करता है, उसने उसे यह बताया भी है? क्या वह लड़की भी तुम्हारे दोस्त को पसंद करती है? क्या तुम्हें यह अच्छा लगेगा कि कोई तुम्हें पसंद करता है, इसलिए तुम्हें देखा करे?" इन सवालों पर भी बात हुई कि किस तरह धीरे-धीरे किशोर होती लड़कियां मोहल्ले में खेलने के लिए निकलना बंद कर देती हैं, जबकि लड़के उनके घर का चक्कर लगाने के बाद गली-मोहल्ले में उनका पीछा करने लगते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता कि कब हंसी-खेल में होने वाली यह बातें ईव-टीसिंग में बदलने लगती हैं। उन दोस्तों के बारे में भी बात हुई जो अपने से महज कुछ छोटी बहनों को खेलने के लिए साथ नहीं लाते, जबकि  मोहल्ले में दूसरी लड़कियों को जा कर देखना चाहते हैं। उन माँओं और पिताओं के बारे में बात हुई जो न खुद एक-दूसरे के साथ बराबरी से पेश आते हैं और न ही अपने बच्चों को बराबरी के बारे में बता पाते हैं। यह सारी बातचीत इतने उदाहरणों के साथ हुई कि उसे इस बात का भरोसा रहे कि उसके दोस्त को गलत नहीं समझा जा रहा है, उसे डराया नहीं जा रहा है, दोस्ती को तोड़ने के लिए नहीं कहा जा रहा है बल्कि हो सके तो दोस्त से बात करने और यदि न हो सके तो उन कामों में शामिल न होने के लिए कहा जा रहा है जो किसी दूसरे व्यक्ति की निजता का उल्लंघन करते हैं।  कोई भी बातचीत एक दिन अचानक नहीं होती, बच्चों के पास चीजों को देखने का नजरिया धीरे-धीरे विकसित होता है। तेरह साल की उम्र तक आते-आते इस बच्चे ने कुछ ऐसा सीखा था कि उसे इस व्यवहार पर बात करने की ज़रूरत महसूस हुई थी।

 

मैंने जब अपनी एक दोस्त को बच्चों के साथ हुई इस बातचीत के बारे में बताया तो उसने कहा, "तुम कहीं बच्चे को असहज तो नहीं कर रही हो? इस उम्र में तो लड़के-लड़कियां एक-दूसरे को देखा ही करते हैं। लड़कियां भी किसी लड़के को पसंद करती हैं तो उन्हें देखना चाहती हैं।" लेकिन मुझे इस पर संशय था कि यह इतना ही समान रूप से एक-दूसरे को देखना होता है, या लड़कियां खुद भी अपने आप को वस्तु के रूप में पेश करने लगती हैं जबकि लड़के एक तरह के अधिकार, एंटाईटलमेंट के साथ किसी लड़की पर निगाह डालते हैं? मैं  सोशल मीडिया पर अपने सामने बड़े हुए बच्चों के व्यवहारों में इसकी झलक देखती हूँ कि कैसे देखते ही देखते किशोर से युवा होती लड़कियां फेसबुक या इंस्टाग्राम पर सज-संवर कर पाउट बनाती तस्वीरें पोस्ट करने लगीं हैं, जबकि लड़के दोस्तों के साथ घुमक्कड़ी, खेल या अन्य गतिविधियों में अपनी संलग्नता के बारे में पोस्ट लिखने लगे हैं, तस्वीरें लगाने लगे हैं। मानो लड़कियां दुनिया के लिए नुमाइश की वस्तु हों, लोगों की अप्रूवल के लिए खुद को पेश कर रही हों और लड़के बाहर की दुनिया के लिए तैयार जिम्मेदार मर्द। मैंने यह भी पाया कि बड़े बेटे के साथ कम उम्र में हुए इस तरह के संवाद ने उसे असहज नहीं किया, बल्कि लड़कों ही नहीं लड़कियों के साथ भी वह एक बेहतर दोस्त रहा, उनका राजदार भी रहा। वह खुद से सवाल करता है, अपनी साथी के सम्मान का खयाल रखता है। यह सवाल ऐसे तो हैं नहीं कि एक बार में सुलझ जाएँ, कई बार गलतियाँ भी होती हैं लेकिन व्यक्ति को बार-बार खुद से पूछना होता है। बात इतनी भर है कि स्त्री और पुरुष के बीच एक-दूसरे को देखने वाली निगाह कैसी है, यदि समय रहते इस पर संवाद होने लगे तो संभवतः वे इसके बारे में सजग रह सकें। वही सजगता जो संभवतः पार्क में खड़े उन पुरुषों में नहीं थी जो शायद मेरे सम-वयस्क तो रहे होंगे।    

 

जिन समाजों में नजर मिलने पर लोग स्वाभाविक तौर पर मुस्करा कर अभिवादन करते हैं वहां संभवतः स्त्री हर समय अपने आप को वस्तु में रिड्यूस होते महसूस न करती हो। जहां 'हंसी तो फंसी' का मुहावरा चलन में हो वहां आजीवन देह पर रेंगती निगाहों को नजरंदाज कर खुद में भरोसा बनाए रखना होता है। ऐसा तो दुनिया में कोई मुल्क नहीं है जहां औरतों के साथ हिंसा और बलात्कार नहीं होते, लेकिन संभव है दुनिया के कुछ हिस्सों में अदालतें और समाज इस तरह के प्रकरणों में स्त्री के वस्त्र, बलात्कार के समय और जगह पर बात कर उसके चरित्र का विश्लेषण न करते हों। सहमति और असहमति पर बात तो वहां भी होती होगी, लेकिन सामुहिक बलात्कार और हत्या के बाद पोस्टमार्टम रिपोर्ट को मेनिपुलेट न किया जाता होगा, लड़कियों को जिंदा जलाया न जाता होगा, बलात्कारी विधायकों और गुरुओं के समर्थन में सड़कों पर प्रदर्शन न किए जाते होंगे। अदालतें बलात्कारी की  'शैक्षिक प्रतिभा' को जमानत का आधार न बनाती होंगी, उन्हें मुल्क का भविष्य बता कर लड़की के साथ हुई हिंसा को रफा-दफा न कर देती होंगी, पत्नी की असहमति के बावजूद जबरदस्ती किए जाने वाले सेक्स को पति का अधिकार और पत्नी का कर्तव्य न बताती होंगी। 

 

जब आप किसी व्यक्ति को वस्तु के तौर पर देखते हैं तो उसके प्रति अपका नज़रिया उसके उपभोग का होता है। तो क्या मैं यह कहना चाहती हूँ कि पुरुष को स्त्री की ओर कामना की निगाह से देखना ही न चाहिए! नहीं, मैं ऐसा हरगिज नहीं कह रही हूं। मैं सिर्फ यह कहना चाहती हूं कि पुरुष को भी स्त्री के लिए उसी तरह काम्य होना चाहिए, स्त्री को भी उतना ही निर्द्वंद्व पुरुष को देख पाने की सामाजिकता होनी चाहिए। दोनों के बीच परस्पर कामना का स्वीकार और सम्मान होना चाहिए, लेकिन राह चलती स्त्री को देख कर वस्तु में मत बदलिए। सोशल मीडिया पर स्त्रियों के इनबॉक्स में हाय-हाय मत करते रहिए। समाज में ऐसे पुरुष तैयार हों जो स्त्रियों की निजता का सम्मान कर सकें, उसके लिए सही समय पर लड़कों के साथ संवाद कीजिये। रोजाना घर में और सड़क पर होने वाली छोटी-छोटी हिंसा को समझिए, उस पर बात कीजिए, उसका प्रतिकार कीजिये। लड़कों और लड़कियों के बीच प्यार को जिहाद का नाम मत दीजिये, प्यार को प्यार ही रहने दीजिये। लेकिन सड़क चलती स्त्री की निजता का सम्मान करना सीखिये। अपने बच्चों को यह ज़रूर बताइये कि वे कौनसे व्यवहार हैं जो प्यार नहीं हैं और वे कौनसे व्यवहार हैं जो किसी की निजता का उल्ल्ङ्घन करते हैं। यकीन मानिए हम मिल-जुल कर एक बेहतर समाज बना सकेंगे।


- देवयानी भारद्वाज 

रविवार, 9 जून 2019

काबुल मेरा यार

खालिद हुस्सैनी की किताब 'काइट रनर' के  एक अंश का अंग्रेजी से अनुवाद 


मलबा और भिखारी। जहाँ भी मेरी निगाह जातीबस यही नज़ारा था। मुझे याद है बचपन के दिनों में भी लोग भीख माँगते थे - बाबा सिर्फ उन्हें देने के लिए अपनी जेब में मुठ्ठी भर अफ़ग़ानी मुद्रा लेकर चलते थे। मैंने कभी उनको किसी माँगने वाले को खाली हाथ लौटाते नहीं देखा।  लेकिन अब भिखारी हर  गली के कोने में नज़र आ जाते हैंकटे-फटेऊल जलूल कपड़ों मेंमिट्टी सने हाथों को मामूली रेज़गारी के लिए फैलाए हुए। और अब ज़्यादातर भिखारी बच्चे हैंउदास चेहरों वालेदुबले-पतले बच्चेकुछ की तो उम्र पांच साल भी न होगी। वे गटर के किनारेगली के नुक्कड़ पर अपनी माँओं की गोदी में बैठे मिलते हैं और बस एक ही मंत्र दोहराते जाते हैं - "बख़्शीशबख्शीश!" और एक बात जिस पर अभी तक मेरा ध्यान नहीं गया थाउनमें से किसी के साथ कोई वयस्क पुरुष नहीं था - युद्ध ने अफ़ग़ानिस्तान में पिता को एक दुर्लभ प्रजाति बना दिया था।

हमारी गाड़ी पश्चिम में कारतेह सेह ज़िले की तरफ बढ़ रही थी। जहाँ तक मुझे याद है सत्तर के दशक में यह एक व्यस्त मार्ग हुआ करता था जादेह की तरफ जाने वाला। हमारे उत्तर की ओर सूखी पड़ी काबुल नदी थी। दक्षिण में पहाड़ों के ऊपर पुराने शहर की जर्जर दीवार थी और इसके ठीक पूरब मेंं शिरदरवाजा पर्वतमाला पर खड़ा बाला हिसार दुर्ग - वह प्राचीन गढ़ जिस पर 1992 में दोस्तम ने कब्ज़ा कर लिया था। वही पर्वतमाला जहाँ से 1992 से 1996 के दौरान मुजाहिद्दीनों ने रॉकेटों से हमले कर काबुल को छलनी कर दियावह विध्वंस जो अब मेरे सामने है। शिरदरवाज़ा पर्वतमाला पूरे पश्चिम में फैली है। मुझे याद है यहीं से दोपहर की वह गोलाबारी 'तोपे काश्तहुई थी। मैं रमज़ान के महीने में रोज़ाना दोपहर के वक्त और  शाम को इफ्तार का ऐलान करने जाता था। उन दिनों पूरा दिन गोलाबारी की आवाज़ों को सुना जा सकता था।
"मैं जब बच्चा था तब जादेह मार्ग तक भटकने के लिए चला आता था"मैं बुदबुदाया। "यहाँ दुकानें हुआ करती थींहोटल और नियोन लाइट वाले रेस्तराँ भी। मैं यहाँ सैफो नाम के एक बुज़ुर्ग से पतंग लेने के लिए आता था। पुराने पुलिस हेड क्वार्टर के पास उसकी पतंग की दुकान हुआ करती थी।"
"पुलिस हेड क्वार्टर अब भी वहीं है," फरीद ने कहा। "पुलिस की इस शहर में कोई कमी नहीं। लेकिन जादेह की तरफ के रास्ते पर या पूरे काबुल में अब कहीं पतंग या पतंग की दुकानें नहीं मिलेंगी. वो ज़माना गया।"
जादेह मार्ग अब एक बड़े रेत के महल सा नज़र आता है। वे इमारतें जो अभी तक ढही नहीं हैंरॉकेटों से हुई गोलाबारी से उनकी छतें छलनी हो चुकी हैं और किसी भी समय ध्वस्त हो जाने का ऐलान करती हैं। यह सारा इलाका मलबे में तब्दील हो चुका है। मैंने देखा मलबे के ढेर में दबा एक साइन बोर्ड जिस पर लिखा था 'कोका को...' । बिखरे पड़े ईंट और पत्थरों के टुकड़ों के बीच एक बिना खिड़कियों वाली जर्जर ईमारत में कुछ बच्चे खेल रहे थे। बच्चों के आस-पास कुछ मोटर साइकिल सवारखच्चर गाड़ियांआवारा कुत्ते  भटक  रहे थे और मलबे का ढेर लगा था। शहर को गर्द के गुबार ने ढँक रखा था और नदी के पार एक जगह से उठता धुआँ आसमान तक जा रहा था।
"पेड़ कहाँ गए?" मैंने पूछा।
"लोगों ने सर्दियों में जलावन की लकड़ी के लिए काट लिया उन्हें," फरीद ने बताया। "और बहुत सारे पेड़ शोरावियों ने काट डाले।"
"क्यों?" 
"छापामार निशानेबाज़ उनकी आड़ में छुप जाते थे।"
मुझे उदासी ने घेर लिया। काबुल लौटना मेरे लिए इस तरह था जैसे मुद्दत बाद एक पुरानेभुला दिए गए दोस्त से मुलाकात हो और पता चले कि ज़िन्दगी उसके साथ बहुत बेरहम रही। वह बेघर और बेसहारा हो गया है।
"मेरे पिताजी ने यहाँ शेरे कोहना में एक यतीमघर बनवाया थापुराने शहर मेंयहाँ से दक्षिण की ओर," मैंने कहा।
"मुझे याद है," फरीद ने कहा। "कुछ साल पहले वह भी उजाड़ दिया गया।"

"क्या मुझे वहां ले चल सकते हो," मैंने कहा। "मैं उस जगह को देख कर आना चाहता हूँ।"
फरीद ने एक गली में टूटी-फूटी बिना दरवाज़े वाली एक इमारत के पास फुटपाथ के किनारे गाड़ी रोकी। हम गाड़ी ने निकले तब फरीद बुदबुदाया, "यह दवा की दुकान थी।" हम जादेह की तरफ चलने लगेपश्चिम की ओर हम दाएं मुड़े। मेरी आँखों में जलन के साथ पानी आने लगा. मैंने फरीद से पूछा, "यह कैसी गंध है?"
"डीज़ल" फरीद ने बताया‌। "शहर में बिजली बार-बार चली जाती हैइसलिए जनरेटर हमेशा चलते रहते हैं। लोग उसके लिए डीज़ल का इस्तेमाल करते हैं।"
"डीज़ल। याद है उन दिनों इस गली में कैसी महक रहा करती थी? "

"कबाब!" फरीद मुस्कराया।
"मेमने का कबाब," मैंने कहा।
"मेमना," मन ही मन स्वाद लेते हुए फरीद ने कहा। " काबुल में मेमने का गोश्त अब सिर्फ तालिबान खाते हैं।" मुझे बाजू पकड़ कर खींचते हुए वह बुदबुदाया, "नाम लेते ही ..."
एक गाड़ी हमारी तरफ आ रही थी। "दाढ़ी  वालों की गश्त," फरीद ने कहा।
तालिबान को देखने का यह मेरा पहला मौका था। मैंने उन्हें टीवी पर देखा थाइंटरनेट परअखबारों और पत्रिकाओं में देखा था। और यहाँ मैं उनके सामने थामहज़ 50 फ़ीट की दूरी पर और मेरे मुंह का जायका बदल गया थाडर की एक ठंडी सी  लहर मेरे पूरे शरीर में दौड़ गयी। मानो मेरी खाल मेरी हड्डियों से चिपक गयी हो और दिल ने धड़कना बंद कर दिया हो। वे आ रहे थे। अपने पूरे रौब-दाब के साथ।
लाल रंग का टोयोटा ट्रक हमारे पास आते हुए लगभग ठहर गया। ट्रक के पिछले हिस्से में सख्त निगाह वाले नौजवानों की एक टोली बैठी थी और उनके कन्धों पर कलाश्निकोव टंगी  थी। सबने दाढ़ी रखी थी और काली पगड़ियां पहने थे।  उनमें से एक सांवले रंग का नौजवानघनी भौहों वालाजिसकी उम्र 20 बरस से ज़्यादा न  होगी, वह अपने हाथ में लिए हंटर को ट्रक के पीछे दाएं-बाएं एक लय में घुमा रहा था। उसकी यहाँ-वहाँ  घूमती निगाह मुझसे टकराई। हमारी नज़र मिली। मैंने अपने आप को इस तरह नंगा कभी महसूस नहीं किया था। और तभी उस तालिबान ने तम्बाकू थूक कर मुंह साफ़ किया और दूसरी तरफ देखने लगा। मेरी सांस में सांस लौट आयी। ट्रक धूल का गुबार उड़ाता हुआ जादेह के रास्ते पर बढ़ गया।
"तुम्हारी दिक्कत क्या है?" फरीद गुर्राया।
"क्या?"
"उनकी तरफ कभी  मत घूरना। तुम समझ रहे होकभी नहीं!"
"मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं था," मैंने कहा।
"आपके दोस्त सही कह रहे हैंआग़ा। इसकी बजाय तो आप रेबीज़ वाले कुत्ते को लकड़ी चुभा कर छेड़ सकते हैं," किसी ने कहा। यह नयी आवाज़ एक बूढ़े भिखारी की थीजो पास ही एक जर्जरगोलियों से छलनी पुराने मकान की सीढ़ियों में नंगे पैर बैठा था। उसने तार-तार हो चुका चाप कोटचिथड़ेनुमा कपडे और धूल से सनी पगड़ी पहनी थी। उसकी बाईं पलक एक खाली कोटर पर झूल गयी थी। अपने आर्थराइटिस वाले हाथ से ट्रक जिस दिखा में गया उस तरफ इशारा करते हुए उसने कहा। "वे ताक में घूमते रहते हैं. इस ताक में कि कोई उनको उकसाये। देर-सबेर कोई न कोई उनकी इस इच्छा को पूरा कर देता है। फिर कुत्तों की दावत हो जाती हैउनकी बोरियत दूर होती है और वे सब एक साथ चिल्लाते हैं, 'अल्ला हू अकबर!और जब कोई उन्हें नहीं उकसाता तो हिंसा तो होती ही रहती हैहै न!"
"अपनी नज़र को अपने पैरों पर गड़ा कर रखोजब भी तालिबान आस-पास हों," फरीद ने कहा।
"आपका दोस्त सही सलाह दे रहा है," बूढ़े भिखारी ने कहा। उसने ज़ोर से खाँसा और अपने गीले-मिटटी सने रुमाल से मुंह ढँक लिया। उसने सांस संभालते हुए कहा,"माफ़ करनाक्या आप मुझे कुछ अफगानी दे सकेंगे?"
"बस! चलो यहाँ से,"  फरीद ने बांह पकड़ कर मुझे खींचते हुए कहा।
मैंने भिखारी को करीब सौ-हज़ार अफगानी दिएलगभग तीन डॉलर के बराबर रहे होंगे। जब वह लेने के लिए आगे झुका तो उसकी दुर्गन्धफटे दूध सी बदबू और कई हफ़्तों से नहीं धुले पैरों की गंधमेरे नथुनों में भर गयी और मुझे ज़ोर की उबकाई आने को हुई। उसकी इकलौती आँख चौकन्नी हो कर इधर से उधर घूमी और उसने जल्दी से पैसों को अपनी कमर में खोंस लिया। 

"आपकी उदारता के लिए शुकरानाआग़ा साहिब।"
"क्या आप जानते हैं कारते सेह में यतीमघर  कहाँ है?" मैंने पूछा.
"उसे ढूंढना मुश्किल नहींवह दारुलमान मार्ग के पश्चिम में ही है," उसने कहा। "जब राकेटों से पुराने यतीमखाने पर हमला हुआ तो यहाँ से बच्चों को वहीँ ले जाया गया था। यह ऐसा है जैसे किसी को शेर के मुंह से निकाल कर चीते के आगे डाल दो।"
"शुक्रिया आग़ा," मैंने कहा।
"यह आपका पहला मौका था न!"
"मैं समझा नहीं?"
"आपने पहली बार तालिबान को देखा था?" मैंने कुछ नहीं कहा। बूढ़े  भिखारी ने गर्दन हिलाई और मुस्कराया। उसके मुंह में बचे-खुचे दांत झांकने लगे- सब ऊबड़-खाबड़ और पीले। "मुझे याद है जब उन्हें पहली बार देखा था। काबुल की सड़कों पर गड़गड़ाते हुए। क्या खुशनुमा दिन था वह!" उसने कहा। "मौत का अंत! वाह वाह! लेकिन जैसा की शायर ने कहा है, "कितना मुसलसल नज़र आता था इश्क़ और तब मुसीबत आयी।"
मेरे चेहरे पर मुस्कान तैर गयी, "मैं जानता हूँ यह ग़ज़ल। हाफ़िज़ की है."
"हाँ यह उन्हीं की है," बूढ़े ने कहा। "मुझे मालूम रहना चाहिए। मैं इसे यूनिवर्सिटी में पढ़ाया करता था।"

मंगलवार, 20 मार्च 2018

कवि की मृत्यु पर कोहराम

मृत्यु एक गरिमामय कर्म है 
एक सार्थक जीवन के बाद 
चुचाप उठ कर चल देना 
जिए गए जीवन के प्रति 
गहरी श्रद्धा 
ऐसी मृत्यु 
जिसे आप अपने मौन में 
जज़्ब करते हैं धीरे-धीरे 

मृत्यु कोई हादसा नहीं 
हत्या या असामयिक मृत्यु 
यहाँ मेरा सन्दर्भ नहीं 
एक भरपूर जीवन के बाद 
विदा की घड़ी 
जैसे दूर क्षितिज पर 
ढल रहा हो सूरज 
धीरे-धीरे 
जबकि दीप्त है पृथ्वी 
अब भी उसकी आभा में 

बिना शोर 
बिना कोहराम के 
चला गया एक कवि 
जैसे चले गए उसके पूर्ववर्ती 
जैसे चले जायेंगे अभी और भी कई 
अपने जाने के सही समय पर 

कवि की मृत्यु पर कोहराम 
शोक संदेशों और श्रद्धांजलियों की बाढ़ 
मृत्यु की गरिमा पर चोट सा पड़ता है 
वह जहाँ चला गया है 
वहां नहीं पहुंचेंगे तुम्हारे शोक सन्देश 
उसके पीछे 
इतना शोर मत मचाओ 
वह लिख रहा है 
अपनी अंतिम कविता 
उसके आस पास थोडा धीरे बोलो 
कुछ शोर कम मचाओ 

रविवार, 25 फ़रवरी 2018

कुछ गलतियाँ भी करो

इधर देखती हूँ कुछ लोग बदलाव की बहुत हड़बडी में हैं. वे यह चाहते हैं कि ब्रा, सेक्स, माहवारी, योनि आदि शब्दों को इतनी बार और इतनी जोर से उच्चारित करें कि लोगों को इनकी आदत हो जाये और फिर वे जैसा चाहें वैसा जीवन जी सकें. यदि यह पुरुष हैं तो उनकी संगिनी या बहन या बेटी अपने मन माफिक जीवन जी सकें. कई बार मुझे इस शोरगुल को सुन ऐसा लगता है जैसे वे इस इंतज़ार में हैं कि पहले दुनिया उनके मन मुताबिक हो जाये फिर वे अपने मन मुताबिक जीना शुरू करें.

तो ऐसे साहिबानों और देवियों से यह कहने का मन है, "भाइयो और बहनो! दुनिया तुम्हारे कहने से नहीं, तुम्हारे बदलने से बदलेगी. जिन महिलाओं को ब्रा पहनने का मन नहीं करता वे न पहनें, यदि सेहत को उसके कोई नुक्सान हैं तो ज़रूर उनकी बात भी करें. लेकिन सोशल मीडिया पर ब्रा विरोधी बहसें चलाते हुए जब आपकी तस्वीरें और आपका पहनावा बाज़ार और समाज के सारे प्रतिमानों को पूरा करता नज़र आता है तो मुझे समझने में कठिनाई होती है कि आखिर यह क्रांति की मशाल आप किन हाथों में देखना चाहती हैं. दुनिया की निगाहों की परवाह करेंगी तो सनद रहे आपने ब्रा पहनी हो या नहीं, यह निगाहें जब चाहें आपकी फिगर नाप लेती हैं. इन निगाहों की निगहबानी कर सको तो करो, वरना उन्हें इतनी तरजीह ही क्यों देती हैं. जब तक आप असहज हैं,  तभी तक वे आपको असहज कर सकती हैं. जो औरतें ब्रा पहनने की नसीहत दें उन्हें कहें कि उन्हें जो पहनना पसंद हो पहनें, आप पर अपनी पसंद न थोपें. क्योंकि आप भी उन्हें नहीं कह रही हैं कि वे कल से ब्रा पहनना बंद कर दें. कोई दोस्त-सहकर्मी हिम्मत नहीं करेगा कि आपसे ब्रा न पहनने के बारे में प्रश्न करे. जो पूछे तो सीधे नाक पर पंच करना और पलट कर पूछना भी मत. भाई, पति, पिता, ससुर से कैसे निपटना है यह तय कर लीजिये. जिस दिन तय कर लेंगी उस दिन न किसी की निगाह खटकेगी, न किसी के सवाल सतायेंगे. आखिर किसी दिन ऐसे ही कुछ औरतें घूंघट हटा कर भी घर से निकली थीं. अपनी सांकलें पहचानिये वे कहाँ लगी हैं, और यह भी कि कौन सी नयी गिरह हमें फिर घेर ले रही है. फिर याद दिला रही हूँ, मैं बहस चलाने के खिलाफ नहीं, लेकिन दुनिया खुद के बदलने से बदलती है.

माहवारी की बात करने वाली वे लड़कियाँ मुझे बहुत प्रिय हैं जिन्होंने माहवारी के बहते खून में दौड़ लगा कर एक स्टेटमेंट दिया. लेकिन किसी को menstruation की स्पेलिंग ठीक से नहीं आती इससे क्या फर्क पड़ता है? हम तो स्कूल के दिनों में टेस्ट मैच कहा करते थे महीने के उन दिनों को, लेकिन उसे लेकर कोई झिझक नहीं थी. मज़े से साइकिल चलाते हुए स्कूल जाते थे, खेलों में भाग लेते और जो मन आता खा लेते थे.  माहवारी, महीना, पीरियड और menstruation यह सब शब्द तो बाद में पता चले. यह भी बहुत बाद में पता चला की लड़कियों को कैसे-कैसे दुर्भाव का सामना करना पड़ता है इस कारण. मंदिर जाने में कभी रूचि थी नहीं इसलिए इस बात से कोई फर्क पड़ा नहीं. वैसे भी ईश्वर कब औरतों के साथ हुआ है, जो उसके दर्शन की खातिर आस-पास के लोगों से दुश्मनी मोल ली जाए. लेकिन आपकी मर्जी है कि आपको पूजा करने में सुकून मिलता है तो साल-महीना-सप्ताह के किसी भी दिन आपको कोई रोक नहीं सकता. बेखटके मंदिर जाइए और अगर और भी ज़ोरदार तरीके से यह सन्देश देना है तो सबको बता कर जाइए. लेकिन उन लोगों का मजाक मत बनाइये जो यह नहीं बता पाते कि माहवारी का खून किस रास्ते निकलता है. उनसे पूछना शरीर से पेशाब किस रास्ते निकालता है, और अगर वे उतना ही असहज न हों तो देखना. और vagina ही नहीं उनके लिए penus शब्द का उच्चारण भी उतना ही दुविधा भरा होगा. शिवलिंग की बात कर लेना दूसरी बात है, औरतों को गाली देना, ट्रेन में टॉयलेट की दीवार पर और फेसबुक पर ट्रोल बन कर कुछ भी लिख देना भी अलग है. वहां उनका चेहरा सामने नहीं होता, कैमरा पर ऐसे लोगों से आँख में आँख डाल माहवारी के बारे में बात करने में हलक तो सूखेगा.

जिन लोगों ने स्कूल में दसवीं से आगे बायोलॉजी नहीं पढी वे नहीं बता पायेंगे कि पेट में जाने के बाद खाना कैसे पचता है और शरीर में रक्त संचरण कैसे होता है इसलिए माहवारी को लेकर लोगों का मज़ाक बनाने से बेहतर है कि इसे लेकर सहज रहिये. दफ्तर में, स्कूल और कॉलेज में मेडिकल किट में सेनिटरी पैड रखे गए हैं या नहीं यह देखिये और अगर नहीं है तो इसकी बेबाक मांग कीजिए. वाशरूम में ढक्कन लगा डस्टबिन नहीं है तो उसकी मांग कीजिये. क्रेम्प होते हैं तो आराम कीजिये, दफ्तर में उसके लिए विशेष अवकाश की मांग कीजिये. सेनिटरी पैड पर GST का विरोध ज़रूर किया जाये, बेहतर और सस्ते उपायों पर भी बात की जाये. लेकिन किसी पैडमैन की पब्लिसिटी के चक्कर में मत आइये. बाज़ार आपकी इसी मासूमियत के दम पर मुनाफा कमाता है. और हाँ! बच्चों को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी अकेले स्कूल के सर मत डालिए, घर में अपने बेटे और बेटी दोनों से बात कीजिये. एक-एक बच्चा स्कूल के माहौल को बदलता है, कक्षा के विमर्श को बदलता है. हम जो इन मुद्दों पर बात कर रहे हैं, इस समाज को बदलने में बात करने के साथ-साथ हमारी और भूमिकाएँ क्या हैं? क्या हम वहां अपने हिस्से का काम भी कर रहे हैं.

कितनी महिलाएं अपने अंतर्वस्त्र वाशिंग मशीन में बाकि कपड़ों के साथ नहीं धोतीं. क्यों? अंतरवस्त्रों  को वाशिंग मशीन में सब कपड़ों के साथ धोओ और बेटे को भी कपडे सुखाने में मदद करने दो. वह आपकी कुर्ती सुखा सकता है तो ब्रा और पेंटी भी सुखा सकता है. इस बात को समझो की जिस वक़्त में हम औरतें ब्रा, पेंटी, सेक्स, मेंसट्रूएशन की बात कर रही हैं उस समय में वे देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, धर्म, समाज, शिक्षा पर बात कर रहे हैं, नीतियां निर्धारित कर रहे हैं. सतर्क रहो कि कहीं हमें हमारी ही देह की बातों में उलझा कर छोड़ देना उनकी कोई नयी साजिश तो नहीं! बाज़ार और पितृसत्ता दोनों के औज़ार बहुत पैने हैं और हम आज भी उनकी दुनिया में आँखें मलते हुए उठी हैं. वे हमें तरह-तरह से भरमाते रहे हैं, कभी देवी कह कर ऊंचे आसन पर बिठा दिया, कभी स्वयंसिद्धा कह घर और बाहर दोनों का श्रम हमारे कन्धों पर डाल दिया. इसलिए अपनी मर्जी से जीने के लिए अपनी आवाज़ बुलंद कीजिये, लेकिन निगाह इस बात पर भी रखिये किआखिर कैसी दुनिया चाहती हैं आप जिसमें अपनी मर्जी से जीना चाहती हैं.

और हाँ!  किसी के साथ सेक्स का मन है तो कर लीजिये. आपकी देह पर उसका नाम नहीं छप जाएगा. मन नहीं है तो मत कीजिये. किसी से बात करना, दोस्ती करना, करीब महसूस करना सेक्स के लिए बाध्य नहीं करता. अगर कोई ऐसा समझे तो उसे कहिये कि अपना दिमाग दुरुस्त रखे. दो मनुष्यों के बीच दैहिक निकटता न मुलाकातों की संख्या से तय होती है न परिचय की पुरातनता से. अपनी और अन्य की मनुष्यता से प्यार करो और फिर जो जी चाहे वह करो. किसे साबित करना है की आप सही हैं ? किससे अपने चरित्र का प्रमाण पात्र लेना है? और फिर हमेशा सही ही होना है, ऐसा भी कहाँ ज़रूरी है. कुछ गलतियाँ भी की जाएँ. बस इतना याद रहे कि बदलाव की प्रक्रिया धीमी है. समाज लोगों के बदलने से बदलता है, इसलिए जो बदलाव की बात करता है उसकी यह ज़िम्मेदारी ज्यादा है कि वह खुद से बदलाव को शुरू करे. 

गुरुवार, 20 जुलाई 2017

कभी कभी मैं अपना लौटना देखती हूँ

पानी से भरी लबालब झील से 
बारिश की सुबह 
जंगल की तरफ खुली खिड़की से 


मैं देखती हूँ अपना लौटना 
दरवाज़े को धडाम से बंद करना 
सांकल चढ़ाना 
और थक कर लुढ़क जाना 
बिस्तर पे 

एक समय के बाद 
आंसू और सिसकियाँ भी 
साथ नहीं देते 
मैं अपने शून्य में लौट आती हूँ 

रविवार, 3 जनवरी 2016

सवेरा होने तक

चाहती तो यह भी हूँ
कि दुनिया में बराबरी हो
न्‍याय हो
कोई भूखा न रहे
सबको मिले अच्‍छी शिक्षा
रोटी पर सबका हक हो
पानी पर सबका हक हो
सबके हिस्‍से में अपनी ज़मीन
सबका अपना आसमान हो

सीमाओं पर कँटीले तार न हों
फुलवारियाँ हों

हम इस तरह जाएँ पाकिस्‍तान
जैसे बच्‍चे जाते हैं नानी घर
या कराँची के सिनेमाघर में
देख कर रात का शो
लौट आएँ हम दिल्‍ली
और चल पड़ें काबुल की ओर
मनाने ईद

जिन सीमाओं पर विवाद हैं
वहाँ बना दिए जाएँ
कामकाजी माँओं के बच्‍चों के लिए
पालनाघर

नदियों पर बाँध न बनाए जाएँ
बसाई जाएँ बस्तियाँ
उन तटों पर
जहाँ बहती हैं नदियाँ

जंगलों में जिएँ जगल के वाशिंदे
वनवासियों की विस्‍थापित बस्तियाँ न बनें शहर
जंगलों को मुनाफे के लिए लूटा न जाए

शिक्षा और विकास जैसे पुराने शब्‍दों की
नई परिभाषाएँ गढ़ी जाएँ

बच्‍चा जो सड़क पर बेच रहा गुब्‍बारा
उसके हाथ में हों तो सही
गुब्‍बारों के गुच्‍छे
लेकिन वह खेल सके उनसे भरपूर
गुब्‍बारा से रंगों से खिले हों उसके सपने

ऐसी अनंत चाहतों की फेहरिश्‍त है मेरे पास
और इन सबके बीच है
एक छोटी सी चाहत
बस इतनी

मेरी आँखों में उगते इन सपनों को
तुन अपनी हथेलियों में चुन लो

और हम साथ चलें सवेरा होने तक के लिए 



('एक और अंतरीप' के अक्टूबर-दिसम्बर,2015 अंक में) 

सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

इस तरह चुप हो जाने का वक़्त नहीं है यह

चीख घुट कर रह जाती
डर नहीं  
यह जो बेशर्मी पसरी सब ओर
एक ठंडी जकड़न से भर रही मुझे 

सपनों में गूँज रही
फ़ौजी बूटों की आवाज़ 
आँखें मूँद ज्ञान की भीख मांग रही भीड़ 
हाथ में चाबुक  
हर प्रश्न के जवाब में 
मिलती चाबुक की फटकार 
आप आज़ाद देश के नागरिक हैं 
लेकिन यहाँ 
सिर्फ सहमति का स्वागत है 
इससे अगर शिकायत है 
तो जा सकते हैं पाकिस्तान 
आप 

एक निर्लज्ज मर्द की ठोकर से 
गिरी स्त्री के जख्मो पर 
मरहम लगा रहे बच्चे से 
भयभीत सत्ताधारी 
गूँज रहा सभ्यता का अट्टहास 
चहुँ ओर 

पताका की तरह फहरा रहे मर्द  
स्त्रियों के अंतर्वस्त्रों को 
सिकुड़ता जा रहा ह्रदय उनका 

एक पूरी भीड़ बता रही 
औरतों 
अपने वस्त्र अँधेरे कोनों में सुखाओ 
औरतों 
तुम खुद अंधेरों में चली जाओ 

यह जो फहरा रहे पताका 
यह जो उन्हें अंधेरों में धकिया रहे 
दोनों गरियाते एक दूसरे को 
दोनों मिल कर औरतों को 
पाताल में गिरा आये हैं 

अयोध्या से गोधरा 
मुजफ्फरनगर से दादरी तक 
घूम रहा उनका रथ  
वे कालिबुर्गी की गलियों में घूम रहे 
वे मुंबई में लाठियां भांज रहे 
वे पुणे में तलवार लहरा रहे हैं 
वे दिल्ली में त्रिशूल उठाए घूम रहे
वे कालिख का टोकरा उठाए घूमते 

वे हमारी जुबान पर घात लगाए बैठे हैं 
वे हमारी कोख पर आँख गडाए बैठे हैं 


यह सपना टूटे 
मेरी नींद टूटे 
मैं शापित 
सोने के लिए इन सपनों के बीच 
जबकि वक़्त की पुकार है 
उठाओं मशाल 
सडकों पर उतर आओ