मंगलवार, 3 नवंबर 2009

सृष्टि का भार

उसके माथे पर रखा है समूची सृष्टि का भार
कंधों पर उसके धरे हैं पहाड़
पीठ पर उठाये खड़ी है वह
चीड और देवदार
उसकी आंखों से छलकता है
समंदर

उसके हिस्से में टुकड़े-टुकड़े आता है आसमान
पहुंचता नहीं है उस तक बारिश का पानी
बस भीगते रहते हैं पहाड़,
चीड़ और देवदार

वह देखती है बारिश
अपनी सपनीली आंखों से
बढाती है हाथ
और डगमगाने लगता है
सृष्टि का भार
झुकने लगते हैं पहाड़

उसके कदमों को छु कर गुज़रती है नदी
उसके थके पाँव
डूब जाना चाहते हैं
उसके ठंडे मीठे पानी में
बारिश में देर तक भीगना चाहती है वह

कोई आओ
थाम लो कुछ देर सृष्टि
उठा लो कुछ देर पहाड़, चीड़ और देवदार
या भर लो उसे ही अपने भीगे दमन में इस तरह
की वह खड़ी रह सके
थामे हुए अपने माथे पर
अपनी ही रची सृष्टि का भार

बात

बात जब करते हैं हम
मैं कुछ कहती हूँ
तुम कुछ सुनते हो

तुम कुछ कहते हो
मुझे सुने देता है
कुछ और ही

हम हो जाते हैं मौन
तुम कहते हो कुछ
मैं कहती हूँ कुछ
न तुम कुछ सुनते हो
न मैं सुनती हूँ कुछ

यूँ हम करते हैं बात इसके बाद भी

सोमवार, 2 नवंबर 2009

जुगनू

रात के अंधेरों में
हम जुगनू पकड़ते थे
बंद मुठ्ठी में जुगनू के साथ
हाथ में आ जाता था रात का अँधेरा भी
जुगनू मर्तबान में बंद
लड़ते रहते अंधेरे से
सुबह तक दम तोड़ देते थे

अँधेरा जमा होता गया
कांच की दीवारों पर

यहाँ से देखो

यहाँ से देखो
आसमान कितना नीला है
घास कितनी हरी
कितना चटख है फूलों का रंग
कितना साफ़ दिख रहा है
तालाब का पानी
हवा में घुल रही है
कैसी भीनी गंध
नहीं, बंद मत करो
खिरकी के पल्ले
यूँ ही रहने दो उन्हें
आधा खुला
झूलता हवा में