शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

उसका जाना

वह एक जंगल में गया

जो बाहर से बीहड़ था

अंदर से बेहद सुकुमार

वहां जगमगाती रोशनियां थीं,

रंग थे, फूलों वाली झाड़ियां थीं,

सम्मोहक तंद्रिल संगीत था

वह गया

कि उतरता चला गया

उसकी स्मृतियों में पीछे छूट चुके हम थे

जिनके बाल बिखरे थे

जिनके पैरों पर धूल जमी थी

जो कई-कई दिनों में नहाते थे

पलट कर उसने देखा नहीं

हम देखते रहे उसका जाना

एक बीहड़ में

खौफनाक जानवरों के बीच

हमें देख हिलाते हाथों की ऊर्जा उसकी नहीं थी।

एक दिन

कपड़े पछीटते-पछीटते एक दिन

मेरे हाथ दूर जा गिरे होंगे

मेरी देह से

चूमते-चूमते छिटक कर

अलग हो गए होंगे

होंठ मेरे चेहरे से

तुम्हारे दांतों बीच दबा स्तन

नहीं कराएगा मेरे ही सीने पर होने का अहसास

वह लड़की जो मुझमें थी

सहम कर दूर खड़ी होगी

तड़प रहा होगा कोई भ्रूण मुझसे हो कर जन्मने को

क्रूर

बेहद क्रूर होगी

मेरे आस-पास की शब्दावली

निश्चेष्ट पड़े होंगे मेरे अहसास

कठिन

उस बेहद कठिन समय में

रचना चाहूंगी जब एक बेहतर कविता

मेरी कलम टूट कर गिर गई होगी

लुढ़क गई होगी मेरी गर्दन एक ओर

तुम अपलक देख रहे होगे

उस दृश्य को।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

उदासी

उदासी ने फिर

बिखेर लिए हैं अपने बाल

अकेलेपन के आगोश में

गिरती चली जा रही हूं

रविवार, 27 जून 2010

लौटना था घर

पराजित योद्धा की तरह

लौटना था घर

कोई युद्ध का मैदान नहीं

कोई वांछित सा संघर्ष भी नहीं

ऐसा भी नहीं था कुछ

जिसमें झोंका जा सके

समूची ऊर्जा को

एक घर से दफ्तर के बीच का फासला था

एक फासला था इच्छा से विवशता के बीच

ढेर सारा ट्रैफिक

ढेरों लोगों की बकझक थी

थोड़े से जीवन के बचे रहने की उम्मीद की तरह

रोजाना लौटना था घर

रोजाना के इस लौटने में

रोजाना की पराजय का बोध था।

25 सितम्बर 1998

हवा झुलसा जाती थी

हवा झुलसा जाती थी उसकी इच्छाओं को

बूर ही जाती थी रेत खिलते सपनों को

उसके छोटे-छोटे सुख

दबे थे दूर-दूर तक पसरे धोरों के नीचे

वह लड़की

एक मरुस्थल में जीती थी

तपते रेगिस्तान के बीच

औसत ही मिला था उसे जीवन

पिता की आंखों में खटकने लगी थी उसकी देह

प्रेमी की आंखों में खुभती

पति ने सहलाया बहुत

लगाए थे गोते उसके अंधेरों में

पर

अनछुए ही रहे उसके दुख

भिगोया नहीं किसी बारिश ने

उसे गहरे तक

उसकी नम आंखों के मुंदने पर

भांय-भांय कर उड़ती थी रेत उसके भीतर

वहीं किसी मरीचिका की तरह

डबडबाता दीख पड़ता था

मां का कोमल चेहरा

दुःखों के पहाड़ ढोती मौसी

या हाड़ तोड़ती नानी

विलगा नहीं पाती थी इन चेहरों को वह

हर चेहरे में अपनी ही झलक मिलती उसे

वह भागती चली जाती थी नंगे पांव

जून के निर्जन मरुस्थल में

कहीं कोई कोयल नहीं कूकती

कहीं कोई अमलतास नहीं दीखता था उसकी आंखों को

बस

दूर-दूर तक पसरे धोरे थे

खेजड़ी के रूंख थे

आक थे

और दुःख थे उसके

जिनका भार

बढ़ता ही जाता था

लगातार।

6 जून 1998

रोटी की गंध

पेट की भूख का रिश्ता रोटी से था

यूं रोटी का और मेरा एक रिश्ता था

जे बचपन से चला आता था

रोटी की गंध में

मां की गंध थी

रोटी के स्वाद में

बचपन की तकरारों का स्वाद

इसी तरह आपस में घुले-मिले

रोटी से मां, भाई और बहन के रिश्तों का

मेरा अभ्यास था

पिता

वहां एक परोक्ष सत्ता थे

जिनसे नहीं था सीधा किसी गंध और स्वाद का रिश्ता

बचपन के उन दिनों

रोटी बेलने में रचना का सुख था

तब आड़ी-तिरछी

नक्शों से भी अनगढ़

रोटी बनने की एक लय थी

जो अभ्यास में ढलती गई

अब

रोटी की गंध में

मेरे हाथों की गंध थी

रोटी के स्वाद में

रचना और प्रक्रिया पर बहसों का स्वाद

रोटी बेलना अब रचना का सुख नहीं

बचपन का अभ्यास था।


1 सितम्बर 1997

बुधवार, 26 मई 2010

यूं ही

उसके कदमों की आहट

सुनाई नहीं देती

खटकाता है वह कुंडी इस तरह

मानो डरता हो

कहीं जाग न जाए दीवार पर सोई छिपकली

इस तरह आता है वह

और घुल जाता है इस तरह

जैसे कभी गया ही न था

अपनी खिलखिलाती हंसी से

भर देना चाहता हो जैसे

उन तमाम कोनों को

उदासी जहां बाल बिखेरे बैठी है

कुछ देर के लिए ही सही

समेट लेती है वह जुड़े में अपने बाल

घूमने लगती है यूं ही

इधर-उधर

बनाती है चाय

बिखरे घर को समेटते

व्यस्त होने का दिखावा करती

हंसती है फीकी हंसी

जिसके किनारों पर

उदासी पांव जमाए बैठी है

वह बना रहता है अनजान

फिल्मों की बातें करता है

पूछता है बच्चों के हाल-चाल

अचानक घड़ी को देखते हुए

कुछ इस तरह चल देता है

जैसे याद आया हो अभी-अभी

छूट रहा कोई बेहद जरूरी काम

बहुत जल्दबाजी में विदा ले

निकल आता है वह सड़क पर

जहां घंटों भटकता है यूं ही

24 सितम्बर 2008

रविवार, 11 अप्रैल 2010

पगली सी

बंद आँखों में सपने थे
चौड़े कन्धों पर डाल
अपनी देह का भार
सपनीली उड़ान में उसने पंख नहीं खोले थे

हवा से भी हल्की
खुशबू से भी भीनी
शहद से भी मधुर
प्रेम सी झीनी
जाने कैसी थी वह

सपनों में डूबी
पगली सी

छू भर लेने से पिघल जाती
फूँक भर से उड़ जाती
बिखर जाती नज़र भर में ...