रविवार, 11 अप्रैल 2010

पगली सी

बंद आँखों में सपने थे
चौड़े कन्धों पर डाल
अपनी देह का भार
सपनीली उड़ान में उसने पंख नहीं खोले थे

हवा से भी हल्की
खुशबू से भी भीनी
शहद से भी मधुर
प्रेम सी झीनी
जाने कैसी थी वह

सपनों में डूबी
पगली सी

छू भर लेने से पिघल जाती
फूँक भर से उड़ जाती
बिखर जाती नज़र भर में ...