रविवार, 27 जून 2010

लौटना था घर

पराजित योद्धा की तरह

लौटना था घर

कोई युद्ध का मैदान नहीं

कोई वांछित सा संघर्ष भी नहीं

ऐसा भी नहीं था कुछ

जिसमें झोंका जा सके

समूची ऊर्जा को

एक घर से दफ्तर के बीच का फासला था

एक फासला था इच्छा से विवशता के बीच

ढेर सारा ट्रैफिक

ढेरों लोगों की बकझक थी

थोड़े से जीवन के बचे रहने की उम्मीद की तरह

रोजाना लौटना था घर

रोजाना के इस लौटने में

रोजाना की पराजय का बोध था।

25 सितम्बर 1998

हवा झुलसा जाती थी

हवा झुलसा जाती थी उसकी इच्छाओं को

बूर ही जाती थी रेत खिलते सपनों को

उसके छोटे-छोटे सुख

दबे थे दूर-दूर तक पसरे धोरों के नीचे

वह लड़की

एक मरुस्थल में जीती थी

तपते रेगिस्तान के बीच

औसत ही मिला था उसे जीवन

पिता की आंखों में खटकने लगी थी उसकी देह

प्रेमी की आंखों में खुभती

पति ने सहलाया बहुत

लगाए थे गोते उसके अंधेरों में

पर

अनछुए ही रहे उसके दुख

भिगोया नहीं किसी बारिश ने

उसे गहरे तक

उसकी नम आंखों के मुंदने पर

भांय-भांय कर उड़ती थी रेत उसके भीतर

वहीं किसी मरीचिका की तरह

डबडबाता दीख पड़ता था

मां का कोमल चेहरा

दुःखों के पहाड़ ढोती मौसी

या हाड़ तोड़ती नानी

विलगा नहीं पाती थी इन चेहरों को वह

हर चेहरे में अपनी ही झलक मिलती उसे

वह भागती चली जाती थी नंगे पांव

जून के निर्जन मरुस्थल में

कहीं कोई कोयल नहीं कूकती

कहीं कोई अमलतास नहीं दीखता था उसकी आंखों को

बस

दूर-दूर तक पसरे धोरे थे

खेजड़ी के रूंख थे

आक थे

और दुःख थे उसके

जिनका भार

बढ़ता ही जाता था

लगातार।

6 जून 1998

रोटी की गंध

पेट की भूख का रिश्ता रोटी से था

यूं रोटी का और मेरा एक रिश्ता था

जे बचपन से चला आता था

रोटी की गंध में

मां की गंध थी

रोटी के स्वाद में

बचपन की तकरारों का स्वाद

इसी तरह आपस में घुले-मिले

रोटी से मां, भाई और बहन के रिश्तों का

मेरा अभ्यास था

पिता

वहां एक परोक्ष सत्ता थे

जिनसे नहीं था सीधा किसी गंध और स्वाद का रिश्ता

बचपन के उन दिनों

रोटी बेलने में रचना का सुख था

तब आड़ी-तिरछी

नक्शों से भी अनगढ़

रोटी बनने की एक लय थी

जो अभ्यास में ढलती गई

अब

रोटी की गंध में

मेरे हाथों की गंध थी

रोटी के स्वाद में

रचना और प्रक्रिया पर बहसों का स्वाद

रोटी बेलना अब रचना का सुख नहीं

बचपन का अभ्यास था।


1 सितम्बर 1997