शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

उसका जाना

वह एक जंगल में गया

जो बाहर से बीहड़ था

अंदर से बेहद सुकुमार

वहां जगमगाती रोशनियां थीं,

रंग थे, फूलों वाली झाड़ियां थीं,

सम्मोहक तंद्रिल संगीत था

वह गया

कि उतरता चला गया

उसकी स्मृतियों में पीछे छूट चुके हम थे

जिनके बाल बिखरे थे

जिनके पैरों पर धूल जमी थी

जो कई-कई दिनों में नहाते थे

पलट कर उसने देखा नहीं

हम देखते रहे उसका जाना

एक बीहड़ में

खौफनाक जानवरों के बीच

हमें देख हिलाते हाथों की ऊर्जा उसकी नहीं थी।

एक दिन

कपड़े पछीटते-पछीटते एक दिन

मेरे हाथ दूर जा गिरे होंगे

मेरी देह से

चूमते-चूमते छिटक कर

अलग हो गए होंगे

होंठ मेरे चेहरे से

तुम्हारे दांतों बीच दबा स्तन

नहीं कराएगा मेरे ही सीने पर होने का अहसास

वह लड़की जो मुझमें थी

सहम कर दूर खड़ी होगी

तड़प रहा होगा कोई भ्रूण मुझसे हो कर जन्मने को

क्रूर

बेहद क्रूर होगी

मेरे आस-पास की शब्दावली

निश्चेष्ट पड़े होंगे मेरे अहसास

कठिन

उस बेहद कठिन समय में

रचना चाहूंगी जब एक बेहतर कविता

मेरी कलम टूट कर गिर गई होगी

लुढ़क गई होगी मेरी गर्दन एक ओर

तुम अपलक देख रहे होगे

उस दृश्य को।