बुधवार, 28 दिसंबर 2011

धावक

नींद से जागती हूँ
जैसे गोली छूटती है बन्दूक से

सोती हूँ जैसे धावक बैठा हो तैयार
दौड के लिए

शुरू होता है दिन
एक ऐसी दौड की तरह
जिसमे जीत का लक्ष्य नहीं

एक ऐसी मैराथन जिसके लिए
नहीं है सामने कोई धावक
थामने को मशाल
किसी भी निश्चित दूरी के बाद

अपनी मशाल को
अपने हाथों मे थामे मजबूती के साथ्
खत्म होती है दौड
हर रात
ढ़ती हूँ फिर नींद के आगोश में

शनिवार, 10 दिसंबर 2011

रिक्त स्थानों की पूर्ति करो

बचपन से सिखाया गया हमें

रिक्त स्थानों की पूर्ति करना

भाषा में या गणित में

विज्ञान और समाज विज्ञान में

हर विषय में सिखाया गया

रिक्त स्थानों की पूर्ति करना

हर सबक के अन्त में सिखाया गया यह

यहाँ तक कि बाद के सालों में इतिहास और अर्थशास्त्र के पाठ भी

अछूते नहीं रहे इस अभ्यास से


घर में भी सिखाया गया बार बार यही सबक

भाई जब न जाए लेने सौदा तो

रिक्त स्थान की पूर्ति करो

बाजार जाओ

सौदा लाओ


काम वाली बाई न आए

तो झाड़ू लगा कर करो रिक्त स्थान की पूर्ति


माँ को यदि जाना पड़े बाहर गांव

तो सम्भालो घर

खाना बनाओ

कोशिश करो कि कर सको माँ के रिक्त स्थान की पूर्ति

यथासम्भव

हालांकि भरा नहीं जा सकता माँ का खाली स्थान

किसी भी कारोबार से

कितनी ही लगन और मेहनत के बाद भी

कोई सा भी रिक्त स्थान कहाँ भरा जा सकता है

किसी अन्य के द्वारा

और स्वयम आप

जो हमेशा करते रहते हों

रिक्त स्थानों की पूर्ति

आपका अपना क्या बन पाता है

कहीं भी

कोई स्थान


नौकरी के लिए निकलो

तो करनी होती है आपको

किसी अन्य के रिक्त स्थान की पूर्ति


यह दुनिया एक बडा सा रिक्त स्थान है

जिसमें आप करते हैं मनुष्य होने के रिक्त स्थान की पूर्ति

और हर बार कुछ कमतर ही पाते हैं आप स्वयं को

एक मनुष्य के रूप में

किसी भी रिक्त स्थान के लिए

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

मरुस्थल की बेटी

क्या तुम्हे याद हैं
बीकानेर की काली पीली आन्धियाँ

उजले सुनहले दिन पर
छाने लगती थी पीली गर्द
देखते ही देखते स्याह हो जाता था
आसमान

लोग घबराकर बन्द कर लेते थे
दरवाज़े खिड़कियाँ
भाग भाग कर सम्हालते थे
अहाते मे छूटा सामान

इतनी दौड भाग के बाद भी
कुछ तो छूट ही जाता था जिसे
अन्धड़ के बीत जाने के बाद
अक्सर खोजते रहते थे हम
कई दिनों तक
कई बार इस तरह खोया सामान
मिलता था पडौसी के अहाते मे
कभी सडक के उस पार फँसा मिलता था
किसी झाडी में
और कुछ बहुत प्यारी चीजें
खो जाती थीं
हमेशा के लिए

मुझे उन आन्धियों से डर नहीं लगता था
उन झुल्सा देने वाले दिनों में
आँधी के साथ् आने वाले
हवा के ठंडे झोंके बहुत सुहाते थे
मैं अक्सर चुपके से खुला छोड देती थी
खिड़की के पल्ले को
और उससे मुंह लगा कर बैठी रहती थी आँधी के बीत जाने तक
अक्सर घर के उस हिस्से मे
सबसे मोटी जमी होती थी धूल की परत
मैं बुहारती उसे
अक्सर सहती थी माँ की नाराज़गी
लेकिन मुझे ऐसा ही करना अच्छा लगता था

बीते इन् बरसों में
कितने ही ऐसे झंझावात गुज़रे
मैं बैठी रही इसी तरह
खिड़की के पल्लों को खुला छोड
ठण्डी हवा के मोह मे बंधी

अब जब की बीत गई है आँधी
बुहार रही हूँ घर को
समेट रही हूँ बिखरा सामान
खोज रही हूँ
खो गई कुछ बेहद प्यारी चीजों को
यदी तुम्हे भी मिले कोई मेरा प्यारा सामान
तो बताना ज़रूर

मैं मरुस्थल की बेटी हूँ
मुझे आन्धियों से प्यार है
मै अगली बार भी बैठी रहूँगी इसी तरह
ठण्डी हवा की आस में

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

मन करता है

मन करता है
धरतीनुमा इस गेंद को
लात मारकर लुढ़का दूं

मुट्ठी में कर लूं बन्द
सुदूर तक फैले इस आसमान को
या इसके कोनों को समेटूं चादर की तरह
और गांठ मार कर रख दूं
घर के किसी कोने में

नदियों में कितना पानी
यूं ही व्यर्थ बहता है
इसे भर लूं मटकी में
और पी जाऊँ सारा का सारा

इन परिन्दों के पंख
क्यूं न लगा दूं
बच्चों की पीठ पर
और कहूँ उनसे
उड़ो
भर लो उन्मुक्त उड़ान
चीर दो इस नभ को
इस कायनात में कोई भी सुख ऐसा न रहे
जिसे तुम पा न सको
कोई भी दुख ऐसा न हो
जिसकी परछायी छू भी सके तुमको

बहुत अदना सी है
मेरी पहचान
बहुत सीमित है सामर्थ्य
एक माँ के रूप में
लेकिन कोई भी ताकत इतनी बड़ी नहीं
जो रोक सके उन्हें
इस जीवन को जीने से
भरपूर
मेरे रह्ते

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

इस बार का अकाल

कैसी गुनगुनी थी जाड़े की वो सुबहें
जो हमने विश्वविद्यालय से अल्बर्ट हाल तक के रास्तों को
कदमों से नापते हुए गुजार दीं

जून की तपती दोपहरों मे बैठे हुए कनक घाटी मे
किसी छतरी के नीचे
या किसी झाडी की ओट मे
धूप कभी तीखी नहीं लगती थी

किस तरह उमड आता था हिलोरे मारता प्यार
कि हम खुद ही लजा जाते थे एक दूसरे के आगे
न अपना होश था
न जमाने की परवाह

कितने खाली हाथ थे हम
कितने निहत्थे
कोई दावा नही
कोई अधिकार नही
न कोई अपेक्षा
न उम्मीद
बस इतना ही चाहा था
बस इतना ही सहा नही गया
बस इतना ही सम्भाला नही गया

अब यहाँ खिली जाड़े की धूप झुल्सा रही है मन को
और मन के भीतर उठ रहे हैं अन्धड़
जैसे कि पसरा हो वहाँ
जून का मरुस्थल
इस बार यह अकाल कुछ ज्यादा ही जानलेवा गुज़रेगा
मन के कोठार मे
एक दाना भी तो नही बचा है किसी कोने मे
क्या बुहारूं
क्या समेटूं
खाली घडों के पेंदे तक मे नही बची है पानी की कोई बूँद

सोमवार, 12 सितंबर 2011

मेरे घर की औरतें

आज बहुत याद आ रही हैं वे
मेरे घर कि औरतें

बहन

एक बहन थी छोटी
उस वक्त की नीली आँखें याद आती हैं
ब्याह दी गई जल्दी ही
गौना नहीं हुआ था अभी
पति मर गया उसका

इक्कीसवीं सदी में
तेजी से विकासशील और परिवर्तनशील इस समाज में
ब्राह्मण की बेटी का नहीं होता दूसरा ब्याह
पिता, भाई, परिवार के रहम पर जीना था उसे

नियति के इस खेल को
बीते बारह सालों से झेल रही थी वह
अब मर गई

फाँसी पर झूलने के ठीक पहले
कौनसा विचार आया होगा उसके मन में आखिरी बार

क्या जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं रहा था
जिसके मोह ने उसे रोक लिया होता

मात्र तीस साल की उम्र में
क्या ऐसा कोई भी सुख नहीं था
जिसे याद कर उसे
जीने की इच्छा हुई होती
फिर एक बार

मासी

बडी मासी से सबको डर लगता था
कोई भरोसा नही था उनके मिजाज़ का
घर की छोटी मोटी बातों में
सबसे अलग रखती थी राय

मासी अब नहीं रही
मासी की मौत जल कर हुई थी
कहते हैं उस वक्त घर में सब लोग छत पर सो रहे थे
सुबह चार बजे अकेले रसोई में क्या करने गई थी मासी
अगर पानी पीने के लिए उठी थी
तो चूल्हा जलाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी
क्या सच में मौसा तुम्हें छत पर न पाकर रसोई में आए थे
क्या सच में उनके हाथ आग बुझाने की कोशिश में जले थे...

आज बहुत बरस गुज़र गए
तुम्हारी मौत को भी कई ज़माने हुए

अपनी साफगोई
अपने प्रतिवादों की
कीमत चुकाई तुमने
दुनिया के आगे रोए नहीं तुमने अपने दुख
पति की शराबखोरी और बेवफायी से लड़ती थी अपने अन्दर
और बाहर सबको लगता था
तुम उनसे झगड़ रही हो

तुमने जब देखा किसी स्त्री को उम्मीद से
हमेशा उसे पुत्रवती होने का दिया आशिर्वाद
तुम कहती थी
लड़कियाँ क्या इसलिए पैदा हों
ताकि उन्हें पैदा होने के दुख
उठाने पडें
इस तरह

बुआ

सोलहवाँ साल
जब आईने को निहारते जाने को मन करता है
जब आँचल को सितारों से सजाने का मन करता है
जब पंख लग जाते हैं सपनो को
जो खुद पर इतराने
सजने, सँवरने के दिन होते हैं
उन दिनों में सिंगार उतर गया था
बुआ का

गोद में नवजात बेटी को लेकर
धूसर हरे ओढ़ने में घर लौट आई थी
फूफा की मौत के कारण जानना बेमानी हैं
बुआ बाल विधवा हुई थी
यही सच था

वैधव्य का अकेलापन स्त्रियों को ही भोगना होता है
विधुर ताऊजी के लिए जल्दी ही मिल गई थी
नई नवेली दुल्हन
बूढे पति को अपने कमसिन इशारों से साध लिया था उसने
इसलिए सारे घर की आँख की किरकिरी कहलाई
लेकिन लड़कियों से भरे गरीब घर में पैदा हुई
नई ताई ने शायद जल्दी ही सीख लिया था
जीवन में मिलने वाले दुखों को
कैसे नचाना है अपने इशारों पर
और कब खुद नाचना है

नानी
अपने से दोगुनी उम्र के नाना को ब्याह कर लाई गई थी नानी
ससुराल में उनसे बड़ी थी
उनकी बेटियों की उम्र
जब हमउम्र बेटे नानी को
माँ कह कर पुकारते थे
तो क्या कलेजे में
हाहाकार नहीं उठता होगा

कहते हैं हाथ छूट जाता था नाना का
बडे गुस्सैल थे नाना
समाज में बड़ा दबदबा था
जवानी में विधवा हो गई नानी
सारी उम्र ढोती रही नाना के दबदबे को
अपने कंधों पर

गालियों और गुस्से को हथियार की तरह पहन लिया था उसने
मानो धूसर भूरी ओढ़नी
शृंगार विहीनता और अभाव
कम पडते हों
अकेली स्त्री के यौवन को दुनिया की नज़रों से बचाने
और आत्मसम्मान के साथ जीने को

जवानी में बूढ़े पति
और बुढ़ापे में जवान बेटों के आगे लाचार रही तुम
छत से पैर फिसला तुम्हारा
फिर भी जीवन से मोह नहीं छूटा
हस्पताल में रही कोमा में पूरे एक महिने तक
आखिर पोते के जन्म की खबर के साथ
मिला तुम्हारी मृत्यु का समाचार

मामी
कोई भी तो चेहरा नहीं याद आता ऐसा
जिस पर दुख की काली परछाइयाँ न हों
युवा मामी का झुर्रियों से भरा चेहरा देखती हूँ
तो याद आते हैं वे दिन
जब इसके रूप पर मोहित मामा
नहीं गया परदेस पैसा कमाने
बेरोजगारी के दिनो में पैदा किए उन्होंने
सात बच्चे

चाची
चाची रेडियो नही सुनती है अब
नाचना तो जैसे जानती ही नहीं थी कभी

पडौस के गाँव से
बडे उल्लास के साथ लाई थी दादी
सबसे छोटे लाड़ले बेटे के लिए
होनहार बहू
गाँव भर में चर्चा में होते थे
स्कूल में गाए उसके गाने और उसके नाच
चाची
जो सब पर यकीन कर लेती थी
अब सब तरफ लोग कातिल नज़र आते हैं
या दिखाई देते हैं उसे
सजिशों मे संलग्न

कहा था बडे बाबा ने एक दिन
इस घर की औरतों के नसीब में नहीं है सुख
आज याद आ रही हैं वे सब
जिन्होंने अपने परिवार के पुरुषों
के सुखों के लिए लगाया अपना जीवन
और ढोती रही दुख
अपने अपने नसीब के

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

बच्चे

१.
वे रंगों को बिखेर देते हैं कागज पर
और तलाशते रहते हैं उनमे
औघड रूपाकार

सब चीजों के लिए
कोई नाम है उनके पास

हर आकार के पीछे
कोई कहानी
बनती बुनती रहती है उनके मन में

कभी पूछ कर तो देखो
यह क्या बनाया है तुमने
झरने की तरह बह निकलती हैं बातें

नही, प्रपात की तरह नही
झरने की तरह
मीठी
मन्थर
कहीं थोडा ठहर जाती
और फिर
जहाँ राह देखती
उसी दिशा मे बह निकलती

भाषा जहाँ कम पड़ने लगती है
उचक कर थाम लेते हैं कोई सिरा
मानो
गिलहरी फुदक कर चढ़ गई हो
बेरी के झाड पर

उनसे जब बात करो
तो बोलो इस तरह
जैसे बेरी का झाड
बढा देता है अपनी शाख को
गिलहरी की तरफ
वे
फुदक कर थाम लेंगे
आपके सवालों का सिरा
पर जवाब की भाषा
उनकी अपनी होगी

२.
उसने अपनी उँगलियों के पोरों को
डुबोया हरे रंग मे
और
खींच दी हैं लकीरें
हृदय पर

उसने गाढ़े नीले से
रंग दिया है फलक को

सुर्ख लाल रंग को
बिखेर दिया है उसने
घर के आँगन मे

पीले फूलों से ढक दिया है उसने
आस पास की वनस्पतियों को
उसे हर बार चाहिए
नया सफैद कागज
जिसे हर बार
सराबोर कर देना चाह्ता है वह रंगों से

मेरा बच्चा रंगरेज़

३.
धूप और बारिश के बीच
आसमान मे तना इन्द्रधनुष हैं
मेरे बच्चे

आच्छादित है फलक
उनकी सतरंगी आभा से
जिसके आर पार पसरा है
हरा सब ओर
उनके पीछे
कहीं ज्यादा गाढा हो जाता है
आसमान का नीला
कहीं ज्यादा सरसब्ज हो जाती है धरती

शनिवार, 20 अगस्त 2011

कितने तो रंग हैं

हरे के कितने तो रंग हैं
एक हरा जो पेड की सबसे ऊँची शाख से झाँकता है
एक जिसे छू सकते हैं आप
बढ़ाते ही अपना हाथ
एक दूर झुरमुटों के बीच से दिखाई देता है
एक नयी फूटती कोंपल का हरापन है
एक हरा बूढ़े पके हुए पेड़ का
एक हरा काई का होता है
और एक
पानी के रंग का हरा

कितने ही तो हैं आसमानी के रंग
रात का आसमान भी आसमानी है
सुबह के आसमान का भी नहीं है कोई दूसरा रंग
ढलती साँझ का हो
या हो भोर का आसमान
अपनी अलग रंगत के बावजूद
आसमानी ही होता है उसका रंग

मन के भी तो कितने हैं रंग
एक रंग जो डूबा है प्रेम में
एक जो टूटा और आहत है
एक पर छाई है घनघोर निराशा
फिर भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ता
एक तलाशता है खुशी
छोटी छोटी बातों में
छाई रहती है एक पर उदासी फिर भी
एक मन वो भी है
जिसे कुछ भी समझ नहीं आता है
जो कहिं सुख और दुख के बीच में राह भटका है

गुरुवार, 18 अगस्त 2011

यह समय गुमराह करने का समय है

यह समय गुमराह करने का समय है
आप तय नहीं कर सकते
कि आपको किसके साथ खड़े होना है
अनुमान करना असम्भव जान पड़ता है
कि आप खड़े हों सूरज की ओर
और शामिल न कर लिया जाए
आपको अन्धेरे के हक में

रंगों ने बदल ली है
अपनी रंगत इन दिनो
कितना कठिन है यह अनुमान भी कर पाना
कि जिसे आप समझ रहे हैं
मशाल
उसको जलाने के लिए आग
धरती के गर्भ में पैदा हुई थी
या उसे चुराया गया है
सूरज की जलती हुई रोशनी से
यह चिन्गारी किसी चूल्हे की आग से उठाई गई है
या चिता से
या जलती हुई झुग्गियों से
जान नहीं सकते हैं आप
कि यह किसी हवन में आहूती है
या आग में घी डाल रहे हैं आप
यह आग कहीं आपको
गोधरा के स्टेशन पर तो
खड़ा नहीं कर देगी
इसका पता कौन देगा

गुरुवार, 4 अगस्त 2011

अपना नाम

तुम्हें बहुत सारे प्यार के साथ

जब लिखती हूँ खतों के अंत में अपना नाम

अपने इस चार अक्षर के नाम से

होने लगता है प्यार


जब सुनती हूँ फ़ोन पर

तुम्हारी डूबती आवाज़ में

पुकारा जाना इस नाम को

लगता है मुझे

कितना सुन्दर है यह नाम

इसे इसी तरह जुड़ा होना था

मेरे होने से,

इसी तरह पुकारा जाना था इसे तुम्हारे द्वारा


चालीस की उम्र में

अपने नाम से इस तरह पड़ना प्रेम में

कब सोचा था

यह भी होना है

इस जीवन में

पर अब यह जो है

इसके होने से

होने लगता है

अपने होने से भी प्यार

गुरुवार, 7 जुलाई 2011

बर्फ से...

एक समंदर है वहां हिलोरे मारता
लेकिन ढंका है बर्फ कि सिल्लियों से
ओ सूरज तुम इतना गर्म हो जाओ
कि पिघल जाये सारी बर्फ
इस तरह कि
समंदर में उठने लगे लहर
लील ले फिर चाहे वह
इस धरा को

ओ बर्फ
तुम क्यों जमी हो यहाँ
तुम जाओ पहाड़ों को ढको
समंदर से तुम्हारा क्या वास्ता

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

क्या मृत्यु तुम्हें लौटा लायेगी मेरी ओर प्रिय

मैं अक्सर सोचती हूँ
उन तमाम संभावनाओं के बारे में
जो तुम्हें लौटा लाये मेरी ओर
शायद

मेरा गुस्सा नहीं ला सका तुम्हें वापस
जबकी अच्छी तरह जानते हो तुम कि
बेहद आहात थी मैं उस वक़्त
जब लावे की तरह फूट पड़ता था गुस्सा बात बात पर

आंसू जो रोके नहीं रुकते थे पलकों के भीतर
उन्होंने भी तुम्हें दूरतर ही किया
नहीं यह सोच कर नहीं बहते थे वे कि
तुम्हें करीब लाया जाये
या कि
चले जाओगे तुम दूर इन्हें देख कर
बस एक सैलाब सा उमड़ता था आँखों के भीतर
और पलकों की बाड़
बाँध नहीं पाती थी उन्हें

सब कुछ को भुला कर
एक नई शुरुआत की चाह के साथ
तुम्हें भर लेना चाहा बाँहों में
पर तुम साँस नहीं ले पाते हो वहां
खुद को छुपा लेना चाहा
तुम्हारे बीहड़ में
पर वहां पसरा सन्नाटा
मुझे भी कहाँ ठहरने देता है वहां

इस शहर में
जहाँ रोजाना गुज़रना होता है
भारी भरकम ट्रकों और बसों के बीच से
रेल का फाटक पार करना होता है हर दिन
गाड़ियाँ बहुत बेरहमी से चलती हैं
सबको जल्दी है कहीं पहुँचने की
डर जाती हूँ मैं
कभी भी आ सकती हूँ किन्ही बेरहम पहियों के नीचे
मुझे नहीं जल्दी कही भी पहुँचने की
उन क्षणों में मुझे तुम याद आते हो
और पूछती हूँ खुद से ही
क्या मृत्यु तुम्हें लौटा लायेगी मेरी ओर प्रिय

शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

अन्तहीन हैं मेरी इच्छाएं

समय बहुत कम है मेरे पास
और अन्तहीन हैं मेरी इच्छाएं

गोरैया सा चहकना चाहती हूँ मैं
चाहती हूँ तितली कि तरह उड़ना
और सारा रस पी लेना चाहती हूँ जीवन का

नाचना चाहती हूँ इस कदर कि
थक कर हो रहूँ निढाल

एक मछली की तरह तैरना चाहती हूँ
पानी की गहराइयों में

सबसे ऊंचे शिखर से देखना चाहती हूँ संसार
बहुत गहरे में कहीं गुम हो रहना चाहती हूँ मैं

इस कदर टूट कर करना चाहती हूँ प्यार कि बाकि न रहे
मेरा और तुम्हारा नमो निशान
इस कदर होना चाहती हूँ मुक्त कि लाख खोजो
मुझे पा न सको तुम
फिर
कभी भी कहीं भी

सोमवार, 27 जून 2011

इंतजार

तुम्हारे इंतज़ार में खड़ी थी मैं दरवाज़े पर
हाथों में सजा रखा था थाल
सुर्ख लाल था सिन्दूर का रंग
चावल के दानों में थी बरकत कि दुआएं
ताम्बे के लोटे में पानी
ताउम्र तुम्हारे जीवन में शीतलता की कामना के लिए भरा था
मिठास कि दुआ के साथ रखी थी थाली में मिश्री कि डली
तुम थे कि आते ही न थे
आँखे जुड़ा जाती थी राह देखते देखते
पर तुम थे कि आते ही न थे

वह रोजाना गुज़रता था उस दरवाज़े के आगे से
देखता और मुस्कराता
कभी कभी कुछ देर ठहर जाता
कुछ बातें करता
और चल देता इस दुआ के साथ कि
जल्द ही पूरा होगा यह इंतजार
उसने इंतजार के उस समय को
अपनी बातों से जीवन दिया बार बार
कई बार कहा
थक गई होगी
जाओ सो लो कुछ देर
मैं खड़ा रहूँगा यहाँ
उसका साया भी नज़र आया तो
नींद में पुकार लूँगा तुम्हें
कई बार बना लाता था चाय
हम तुम्हारी बातें करते
चाय कि चुस्कियों के साथ करते रहे तुम्हारा इंतजार
कितने दुःख कितने सुख
हमने बांटे इस तरह साथ साथ

मैं उस दिन भी खड़ी थी उसी तरह
वह उसी तरह गुज़र रहा था
दरवाज़े के सामने से
बस उस दिन वह आया
और हो रहा खड़ा ठीक सामने
कुछ कहा नहीं
बस देखता रहा आँखों में
मैंने सुर्ख लाल सिन्दूर से रंग दिया उसका माथा
चावल के दानों को मुट्ठी में भर उछाल दिया उसके ऊपर
और ठंडा पानी उसे पीने के लिए दिया
उसके गले में दाल दी वे फूल मालाएँ
जिन्हें हर सुबह ताज़ा फूलों को चुन कर बनाया था मैंने
यह जो मिठास है मिश्री की
बस घुलती ही जा रही है
इस मिठास के साथ बढती ही जाती है तुम्हारी याद

अब भी हमारी निगाहें दरवाज़े पर लगी हैं
अब भी हम करते हैं इंतजार
तुम न भी आओ तो कोई बात नहीं
जहाँ भी रहना खुश रहना
बस यह मत भूलना
कि दो जोड़ी आँखें अब भी करती हैं तुम्हें याद
और करती हैं उसी शिद्दत के साथ तुम्हारा इंतजार

बुधवार, 11 मई 2011

जान इस बार मत करना किसी से प्यार

जान
तुम्हारी कवितायेँ मेरे भीतर एक कोहराम मचा देती हैं

मैं जैसी भी हूँ
ठीक ही हूँ
हवाएं अब भी सहलाती हैं मुझे
बस तुम्हारी छूअन नहीं तो क्या
धूप अब भी उतनी ही तीखी है
बस अब बारिशों का इंतज़ार नहीं रहा
एक रास्ता है
जो दूर अनंत तक जाता है
एक चाह है
जो उस अनंत के पार देखती है हमे साथ
तुम बैठे हो मूढे पर
तुम्हारी गोद में मेरी देह ढुलक रही है
तुम्हारे हाथ गुदगुदा रहे हैं मुझे
और मेरे चेहरे पर तैर रही रही हंसी का अक्स
झलक रहा है तुम्हारी आँखों में
और तुम्हारी उँगलियों की सरगम में भी

यह तुम्हें फंसाने कि साजिश नहीं
याद है विशुद्ध
जिसका छाता तान
चलना सोचा है मैंने
इस लम्बी तपती राह पर
जो अनंत तक जाती है
जिस अनंत के छोर पर
हम खड़े हैं साथ
तुम्हारे सीने में धंसा लिया है
मैंने अपना चेहरा
तुमने कस कर भर लिया है मुझे अपने बाहों में
यह बात दीगर है कि
शेष प्राण नहीं हैं उस देह में
यह अंतिम विदा का क्षण है

हमने सडकों पर पागलपन में भटकते हुए बिताई है रातें
करते हुए ऐलान अपने पागलपन का
हमने बिस्तर में झगड़ते हुए बिताई है कई दोपहरें
ढूँढते हुए प्यार
हमारी यही नियति है
कि हम लिखें इस तरह
कि कर दे लहू लुहान
और देखें एक दूसरे कि देह पर
अपने दिए
नख दन्त क्षत के निशान

हम प्रेम और घृणा को अलग अलग देखना चाहते हैं
हमारे ह्रदय में जब उमड़ रहा होता है प्रेम
उस वक़्त पाया है मैंने
सबसे ज्यादा पैने होते हैं हमारे नाखून
तीखे होते हैं दांत उसी वक़्त सबसे ज्यादा

प्रेम तुम्हारी यही नियति है
तुम निरपेक्ष नहीं होने देते
न होने देते हो निस्पृह
तुम क्यों घेर लेते हो इस तरह
कि खो जाता है अपना आप
कि उसे पाया नहीं जा सकता फिर कभी

मुझे कभी कभी उस बावली औरत कि याद आती है
जो भरी दोपहरियों में भटकती थी सडकों पर
भांजती रहती थी लाठी यहाँ वहां
किसी के भी माथे पर उठा कर मार देती थी पत्थर
उसका पति खो गया था इस शहर में
जिससे उसने किया था बेहद प्यार
उसकी याद में उसे सारा शहर सौतन सा नज़र आता था
प्रेम में इंसान कितना निरीह हो जाता है
कितना निरुपाय और निहत्था

जान
इस बार मत करना किसी से प्यार
यदि करो भी तो
कम से कम उसे यकीन मत दिलाना
बार बार इस तरह किसी का दिल दुखाना
तुम्हारे चेहरे पर जंचता नहीं है

या कम से कम इतना करना
कि बस थोड़े से सरल हो जाना

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

दो कवितायेँ

१.
'देखो वह चला जा रहा है, एक बार भी नहीं देखा मुड़ कर.'
'सुनो यूँ उदास न हो... लाओ मैं तुम्हारा हाथ थाम लेता हूँ कुछ देर.... यहाँ मेरे कंधे पर रख लो अपना सर'
'क्या वह एक बार लौट कर नहीं आ सकता... सिर्फ एक बार बाँहों में लेकर अलविदा कहने के लिए भी नहीं...'
'लौट आयेगा शायद... कोई कैसे जा सकता है तुम्हें ऐसे छोड़ कर... कैसे? वो जा नहीं सकेगा दूर तक.... ओह! काश मैं तुम्हारी कुछ भी मदद कर पाता..'


2.
जब तुम खड़े हो मुंह फेर
मैं भी नहीं पुकारूंगी
पर इन सपनों का क्या करूँ
जहाँ चले आते हो तुम
हर रात
टूट कर करते हो प्यार
क्या ऐसा कोई दरवाज़ा है
जिसे बंद किया जा सके
सपनों पर
ताकि सो सकूं मैं
चैन कि नींद
इन लम्बी अकेली रातों में

रविवार, 20 मार्च 2011

'क्या तुमने चाँद को देखा?'

'क्या तुमने चाँद को देखा?'
'होल्ड करो, मैं बालकोनी में जा कर देखती हूँ.'
'आज उसका रंग तुम्हारी पिंडलियों सा चमक रहा है.'
'काश की हम अपने अपने शहर से झुज्झा डालते और डोर को थाम झूला झूलते और इस तरह कहीं बीच में एक दूसरे को छू जाते. '