बुधवार, 11 मई 2011

जान इस बार मत करना किसी से प्यार

जान
तुम्हारी कवितायेँ मेरे भीतर एक कोहराम मचा देती हैं

मैं जैसी भी हूँ
ठीक ही हूँ
हवाएं अब भी सहलाती हैं मुझे
बस तुम्हारी छूअन नहीं तो क्या
धूप अब भी उतनी ही तीखी है
बस अब बारिशों का इंतज़ार नहीं रहा
एक रास्ता है
जो दूर अनंत तक जाता है
एक चाह है
जो उस अनंत के पार देखती है हमे साथ
तुम बैठे हो मूढे पर
तुम्हारी गोद में मेरी देह ढुलक रही है
तुम्हारे हाथ गुदगुदा रहे हैं मुझे
और मेरे चेहरे पर तैर रही रही हंसी का अक्स
झलक रहा है तुम्हारी आँखों में
और तुम्हारी उँगलियों की सरगम में भी

यह तुम्हें फंसाने कि साजिश नहीं
याद है विशुद्ध
जिसका छाता तान
चलना सोचा है मैंने
इस लम्बी तपती राह पर
जो अनंत तक जाती है
जिस अनंत के छोर पर
हम खड़े हैं साथ
तुम्हारे सीने में धंसा लिया है
मैंने अपना चेहरा
तुमने कस कर भर लिया है मुझे अपने बाहों में
यह बात दीगर है कि
शेष प्राण नहीं हैं उस देह में
यह अंतिम विदा का क्षण है

हमने सडकों पर पागलपन में भटकते हुए बिताई है रातें
करते हुए ऐलान अपने पागलपन का
हमने बिस्तर में झगड़ते हुए बिताई है कई दोपहरें
ढूँढते हुए प्यार
हमारी यही नियति है
कि हम लिखें इस तरह
कि कर दे लहू लुहान
और देखें एक दूसरे कि देह पर
अपने दिए
नख दन्त क्षत के निशान

हम प्रेम और घृणा को अलग अलग देखना चाहते हैं
हमारे ह्रदय में जब उमड़ रहा होता है प्रेम
उस वक़्त पाया है मैंने
सबसे ज्यादा पैने होते हैं हमारे नाखून
तीखे होते हैं दांत उसी वक़्त सबसे ज्यादा

प्रेम तुम्हारी यही नियति है
तुम निरपेक्ष नहीं होने देते
न होने देते हो निस्पृह
तुम क्यों घेर लेते हो इस तरह
कि खो जाता है अपना आप
कि उसे पाया नहीं जा सकता फिर कभी

मुझे कभी कभी उस बावली औरत कि याद आती है
जो भरी दोपहरियों में भटकती थी सडकों पर
भांजती रहती थी लाठी यहाँ वहां
किसी के भी माथे पर उठा कर मार देती थी पत्थर
उसका पति खो गया था इस शहर में
जिससे उसने किया था बेहद प्यार
उसकी याद में उसे सारा शहर सौतन सा नज़र आता था
प्रेम में इंसान कितना निरीह हो जाता है
कितना निरुपाय और निहत्था

जान
इस बार मत करना किसी से प्यार
यदि करो भी तो
कम से कम उसे यकीन मत दिलाना
बार बार इस तरह किसी का दिल दुखाना
तुम्हारे चेहरे पर जंचता नहीं है

या कम से कम इतना करना
कि बस थोड़े से सरल हो जाना