सोमवार, 12 सितंबर 2011

मेरे घर की औरतें

आज बहुत याद आ रही हैं वे
मेरे घर कि औरतें

बहन

एक बहन थी छोटी
उस वक्त की नीली आँखें याद आती हैं
ब्याह दी गई जल्दी ही
गौना नहीं हुआ था अभी
पति मर गया उसका

इक्कीसवीं सदी में
तेजी से विकासशील और परिवर्तनशील इस समाज में
ब्राह्मण की बेटी का नहीं होता दूसरा ब्याह
पिता, भाई, परिवार के रहम पर जीना था उसे

नियति के इस खेल को
बीते बारह सालों से झेल रही थी वह
अब मर गई

फाँसी पर झूलने के ठीक पहले
कौनसा विचार आया होगा उसके मन में आखिरी बार

क्या जीवन में कुछ भी ऐसा नहीं रहा था
जिसके मोह ने उसे रोक लिया होता

मात्र तीस साल की उम्र में
क्या ऐसा कोई भी सुख नहीं था
जिसे याद कर उसे
जीने की इच्छा हुई होती
फिर एक बार

मासी

बडी मासी से सबको डर लगता था
कोई भरोसा नही था उनके मिजाज़ का
घर की छोटी मोटी बातों में
सबसे अलग रखती थी राय

मासी अब नहीं रही
मासी की मौत जल कर हुई थी
कहते हैं उस वक्त घर में सब लोग छत पर सो रहे थे
सुबह चार बजे अकेले रसोई में क्या करने गई थी मासी
अगर पानी पीने के लिए उठी थी
तो चूल्हा जलाने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी
क्या सच में मौसा तुम्हें छत पर न पाकर रसोई में आए थे
क्या सच में उनके हाथ आग बुझाने की कोशिश में जले थे...

आज बहुत बरस गुज़र गए
तुम्हारी मौत को भी कई ज़माने हुए

अपनी साफगोई
अपने प्रतिवादों की
कीमत चुकाई तुमने
दुनिया के आगे रोए नहीं तुमने अपने दुख
पति की शराबखोरी और बेवफायी से लड़ती थी अपने अन्दर
और बाहर सबको लगता था
तुम उनसे झगड़ रही हो

तुमने जब देखा किसी स्त्री को उम्मीद से
हमेशा उसे पुत्रवती होने का दिया आशिर्वाद
तुम कहती थी
लड़कियाँ क्या इसलिए पैदा हों
ताकि उन्हें पैदा होने के दुख
उठाने पडें
इस तरह

बुआ

सोलहवाँ साल
जब आईने को निहारते जाने को मन करता है
जब आँचल को सितारों से सजाने का मन करता है
जब पंख लग जाते हैं सपनो को
जो खुद पर इतराने
सजने, सँवरने के दिन होते हैं
उन दिनों में सिंगार उतर गया था
बुआ का

गोद में नवजात बेटी को लेकर
धूसर हरे ओढ़ने में घर लौट आई थी
फूफा की मौत के कारण जानना बेमानी हैं
बुआ बाल विधवा हुई थी
यही सच था

वैधव्य का अकेलापन स्त्रियों को ही भोगना होता है
विधुर ताऊजी के लिए जल्दी ही मिल गई थी
नई नवेली दुल्हन
बूढे पति को अपने कमसिन इशारों से साध लिया था उसने
इसलिए सारे घर की आँख की किरकिरी कहलाई
लेकिन लड़कियों से भरे गरीब घर में पैदा हुई
नई ताई ने शायद जल्दी ही सीख लिया था
जीवन में मिलने वाले दुखों को
कैसे नचाना है अपने इशारों पर
और कब खुद नाचना है

नानी
अपने से दोगुनी उम्र के नाना को ब्याह कर लाई गई थी नानी
ससुराल में उनसे बड़ी थी
उनकी बेटियों की उम्र
जब हमउम्र बेटे नानी को
माँ कह कर पुकारते थे
तो क्या कलेजे में
हाहाकार नहीं उठता होगा

कहते हैं हाथ छूट जाता था नाना का
बडे गुस्सैल थे नाना
समाज में बड़ा दबदबा था
जवानी में विधवा हो गई नानी
सारी उम्र ढोती रही नाना के दबदबे को
अपने कंधों पर

गालियों और गुस्से को हथियार की तरह पहन लिया था उसने
मानो धूसर भूरी ओढ़नी
शृंगार विहीनता और अभाव
कम पडते हों
अकेली स्त्री के यौवन को दुनिया की नज़रों से बचाने
और आत्मसम्मान के साथ जीने को

जवानी में बूढ़े पति
और बुढ़ापे में जवान बेटों के आगे लाचार रही तुम
छत से पैर फिसला तुम्हारा
फिर भी जीवन से मोह नहीं छूटा
हस्पताल में रही कोमा में पूरे एक महिने तक
आखिर पोते के जन्म की खबर के साथ
मिला तुम्हारी मृत्यु का समाचार

मामी
कोई भी तो चेहरा नहीं याद आता ऐसा
जिस पर दुख की काली परछाइयाँ न हों
युवा मामी का झुर्रियों से भरा चेहरा देखती हूँ
तो याद आते हैं वे दिन
जब इसके रूप पर मोहित मामा
नहीं गया परदेस पैसा कमाने
बेरोजगारी के दिनो में पैदा किए उन्होंने
सात बच्चे

चाची
चाची रेडियो नही सुनती है अब
नाचना तो जैसे जानती ही नहीं थी कभी

पडौस के गाँव से
बडे उल्लास के साथ लाई थी दादी
सबसे छोटे लाड़ले बेटे के लिए
होनहार बहू
गाँव भर में चर्चा में होते थे
स्कूल में गाए उसके गाने और उसके नाच
चाची
जो सब पर यकीन कर लेती थी
अब सब तरफ लोग कातिल नज़र आते हैं
या दिखाई देते हैं उसे
सजिशों मे संलग्न

कहा था बडे बाबा ने एक दिन
इस घर की औरतों के नसीब में नहीं है सुख
आज याद आ रही हैं वे सब
जिन्होंने अपने परिवार के पुरुषों
के सुखों के लिए लगाया अपना जीवन
और ढोती रही दुख
अपने अपने नसीब के