मंगलवार, 29 नवंबर 2011

इस बार का अकाल

कैसी गुनगुनी थी जाड़े की वो सुबहें
जो हमने विश्वविद्यालय से अल्बर्ट हाल तक के रास्तों को
कदमों से नापते हुए गुजार दीं

जून की तपती दोपहरों मे बैठे हुए कनक घाटी मे
किसी छतरी के नीचे
या किसी झाडी की ओट मे
धूप कभी तीखी नहीं लगती थी

किस तरह उमड आता था हिलोरे मारता प्यार
कि हम खुद ही लजा जाते थे एक दूसरे के आगे
न अपना होश था
न जमाने की परवाह

कितने खाली हाथ थे हम
कितने निहत्थे
कोई दावा नही
कोई अधिकार नही
न कोई अपेक्षा
न उम्मीद
बस इतना ही चाहा था
बस इतना ही सहा नही गया
बस इतना ही सम्भाला नही गया

अब यहाँ खिली जाड़े की धूप झुल्सा रही है मन को
और मन के भीतर उठ रहे हैं अन्धड़
जैसे कि पसरा हो वहाँ
जून का मरुस्थल
इस बार यह अकाल कुछ ज्यादा ही जानलेवा गुज़रेगा
मन के कोठार मे
एक दाना भी तो नही बचा है किसी कोने मे
क्या बुहारूं
क्या समेटूं
खाली घडों के पेंदे तक मे नही बची है पानी की कोई बूँद

2 टिप्‍पणियां:

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

मन में प्रफुल्लता बनी रहे तो धूप भी गुनगुनाती है, गुनगुने स्वर।

कमल किशोर जैन ने कहा…

devyani ji.. inhi sab rasto par na jane kitani bar ham bhi ghume.. par jo mayane aapne diye.. inke roopak hi badal diye.. bahut hi sundar.