शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

एक अशालीन ज़िद


1. 
ऐसा थोड़े ही है 
कि मुझे मालूम न हो 
कौनसी बातें नहीं कहती शालीन स्त्रियाँ 
यदि मैं भी न कहूं वह सब 
जो वे नहीं कह पातीं 
अपनी हज़ार विवशताओं के आगे 
तो कौन कहेगा आखिर 


2. 
मैं शिकायत करती हूँ 
क्योंकि मैं न्याय की उम्मीद करती हूँ 

क्योंकि ऐसा मानती हूँ मैं कि 
व्यवस्था के इरादे नेक हैं 
और आपकी अक्ल पर 
मट्टी नहीं पडी है अब तक 

आपके सोचने, समझने, 
देख पाने की सामर्थ्य पर 
मेरा संदेह 
एक यकीनन नाउम्मीदी में 
बदला नहीं है अब तक 
खैर मानिए 

3. 
अंगारों से दहकते हैं मेरे शब्द 

जेठ की चिलमिलाती धुप में 
रेत पर नंगे पाँव चलना है 
मेरी कविताओं से गुज़रना 

बबूल के लम्बे सफेद कांटे सी 
धंस जाती है ह्रदय के आर पार 

आग नहीं उगल रही हूँ मैं 
यह अनुभव हैं जीवन के 
जिन्हें मेरी प्रजाति ने जिया है 
मैं तो बस 
उन्हें साझा करने का बायस भर हूँ