सोमवार, 19 अक्तूबर 2015

इस तरह चुप हो जाने का वक़्त नहीं है यह

चीख घुट कर रह जाती
डर नहीं  
यह जो बेशर्मी पसरी सब ओर
एक ठंडी जकड़न से भर रही मुझे 

सपनों में गूँज रही
फ़ौजी बूटों की आवाज़ 
आँखें मूँद ज्ञान की भीख मांग रही भीड़ 
हाथ में चाबुक  
हर प्रश्न के जवाब में 
मिलती चाबुक की फटकार 
आप आज़ाद देश के नागरिक हैं 
लेकिन यहाँ 
सिर्फ सहमति का स्वागत है 
इससे अगर शिकायत है 
तो जा सकते हैं पाकिस्तान 
आप 

एक निर्लज्ज मर्द की ठोकर से 
गिरी स्त्री के जख्मो पर 
मरहम लगा रहे बच्चे से 
भयभीत सत्ताधारी 
गूँज रहा सभ्यता का अट्टहास 
चहुँ ओर 

पताका की तरह फहरा रहे मर्द  
स्त्रियों के अंतर्वस्त्रों को 
सिकुड़ता जा रहा ह्रदय उनका 

एक पूरी भीड़ बता रही 
औरतों 
अपने वस्त्र अँधेरे कोनों में सुखाओ 
औरतों 
तुम खुद अंधेरों में चली जाओ 

यह जो फहरा रहे पताका 
यह जो उन्हें अंधेरों में धकिया रहे 
दोनों गरियाते एक दूसरे को 
दोनों मिल कर औरतों को 
पाताल में गिरा आये हैं 

अयोध्या से गोधरा 
मुजफ्फरनगर से दादरी तक 
घूम रहा उनका रथ  
वे कालिबुर्गी की गलियों में घूम रहे 
वे मुंबई में लाठियां भांज रहे 
वे पुणे में तलवार लहरा रहे हैं 
वे दिल्ली में त्रिशूल उठाए घूम रहे
वे कालिख का टोकरा उठाए घूमते 

वे हमारी जुबान पर घात लगाए बैठे हैं 
वे हमारी कोख पर आँख गडाए बैठे हैं 


यह सपना टूटे 
मेरी नींद टूटे 
मैं शापित 
सोने के लिए इन सपनों के बीच 
जबकि वक़्त की पुकार है 
उठाओं मशाल 
सडकों पर उतर आओ