चीख घुट कर रह जाती
डर नहीं
यह जो बेशर्मी पसरी सब ओर
एक ठंडी जकड़न से भर रही मुझे
सपनों में गूँज रही
फ़ौजी बूटों की आवाज़
आँखें मूँद ज्ञान की भीख मांग रही भीड़
हाथ में चाबुक
हर प्रश्न के जवाब में
मिलती चाबुक की फटकार
आप आज़ाद देश के नागरिक हैं
लेकिन यहाँ
सिर्फ सहमति का स्वागत है
इससे अगर शिकायत है
तो जा सकते हैं पाकिस्तान
आप
एक निर्लज्ज मर्द की ठोकर से
गिरी स्त्री के जख्मो पर
मरहम लगा रहे बच्चे से
भयभीत सत्ताधारी
गूँज रहा सभ्यता का अट्टहास
चहुँ ओर
पताका की तरह फहरा रहे मर्द
स्त्रियों के अंतर्वस्त्रों को
सिकुड़ता जा रहा ह्रदय उनका
एक पूरी भीड़ बता रही
औरतों
अपने वस्त्र अँधेरे कोनों में सुखाओ
औरतों
तुम खुद अंधेरों में चली जाओ
यह जो फहरा रहे पताका
यह जो उन्हें अंधेरों में धकिया रहे
दोनों गरियाते एक दूसरे को
दोनों मिल कर औरतों को
पाताल में गिरा आये हैं
अयोध्या से गोधरा
मुजफ्फरनगर से दादरी तक
घूम रहा उनका रथ
वे कालिबुर्गी की गलियों में घूम रहे
वे मुंबई में लाठियां भांज रहे
वे पुणे में तलवार लहरा रहे हैं
वे दिल्ली में त्रिशूल उठाए घूम रहे
वे कालिख का टोकरा उठाए घूमते
वे हमारी जुबान पर घात लगाए बैठे हैं
वे हमारी कोख पर आँख गडाए बैठे हैं
यह सपना टूटे
मेरी नींद टूटे
मैं शापित
सोने के लिए इन सपनों के बीच
जबकि वक़्त की पुकार है
उठाओं मशाल
सडकों पर उतर आओ